( तर्ज - उँचा मकान तेरा ० )
क्यों सोरहा दिवाने !
उमरी सभी गमाता ।
गोते लगाके भ्रममें ,
फिर काल - घर भ्रमाता ॥टेक ॥
सुध ले जरा गुरूकी ,
पुछ ग्यानकी निशानी । ।
प्रभु है भरा सभीमें ,
' ये जान उनसे बाता ।। १ ।।
एकांत बैठकरके ,
कर स्थीर चित्त अपना ।
दृष्टी बनाके उलटी ,
आनंद क्यों न पाता ? || २ ||
दस - नादकी मधूरी ,
बजती है एकतारी ।
अलमस्त रंग पाता ,
वह प्रेम क्यों न छाता ? ॥३ ॥
तुकड्या कहे गुरूकी ,
जाके शरणमें , भाई ! ।
पावन बनाके जीको ,
उद्धार क्यों न पाता ? ॥ ४ ॥
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